खोल दो ये वातायन मेरा तो दम घुट रहा है,
इस संकीर्ण गृह में.
ऊंच नीच की खिड़कियाँ, अमीरी गरीबी के दरवाजे ,
जाति पाति के पर्दे , लगे हुए हैं बताओ ,
निर्मल और स्वच्छ हवा का झोंका आये तो कहाँ से .
क्यों न घुटे दम इस संकीर्ण गृह में.
बोलने को तो बहुत बोलते हैं ,
सोचने को तो बहुत सोचते हैं,
पर नहीं करते है कर्म ऐसे.
आदर्श महापुरुषों के , विचार ज्ञानियों के ,
परमार्थ साधुओ के लेकर चले थे ,
तो बताओ आचरण में ये नीचता छल प्रपंच आया कहाँ से .
सब जन्म से एक है , सबका जन्मदाता एक है ,
सबका पालनहार एक है , फिर ये भेद किस लिये .
स्वयं जाल बुनकर तू स्वार्थ का , अब फस गया तू निकले कहाँ से -
मेरा तो दम घुट रहा है इस संकीर्ण गृह में .
समाज का क्या हो , परिवार का क्या हो ,
चिंता हो किसलिये ,
कामनाएं अनन्त है उन्हें तो पूरी कर लूँ ,
औरों के लिये भावनाएं आये तो कहाँ से .
मेरा तो दम घुट रहा है इस संकीर्ण गृह में .
जीवन मनुष्य का जिया , आचरण जानवर का किया ,
दूसरों को दुख ही दुख दिया , छीन - छीनकर खा गया तू दूसरों की रोटियाँ .
वसुधैव कुटुंबकम का विचार आये कहाँ से .
मेरा तो दम घुट रहा है इस संकीर्ण गृह में .
---श्रीमती उषा
इस संकीर्ण गृह में.
ऊंच नीच की खिड़कियाँ, अमीरी गरीबी के दरवाजे ,
जाति पाति के पर्दे , लगे हुए हैं बताओ ,
निर्मल और स्वच्छ हवा का झोंका आये तो कहाँ से .
क्यों न घुटे दम इस संकीर्ण गृह में.
बोलने को तो बहुत बोलते हैं ,
सोचने को तो बहुत सोचते हैं,
पर नहीं करते है कर्म ऐसे.
आदर्श महापुरुषों के , विचार ज्ञानियों के ,
परमार्थ साधुओ के लेकर चले थे ,
तो बताओ आचरण में ये नीचता छल प्रपंच आया कहाँ से .
सब जन्म से एक है , सबका जन्मदाता एक है ,
सबका पालनहार एक है , फिर ये भेद किस लिये .
स्वयं जाल बुनकर तू स्वार्थ का , अब फस गया तू निकले कहाँ से -
मेरा तो दम घुट रहा है इस संकीर्ण गृह में .
समाज का क्या हो , परिवार का क्या हो ,
चिंता हो किसलिये ,
कामनाएं अनन्त है उन्हें तो पूरी कर लूँ ,
औरों के लिये भावनाएं आये तो कहाँ से .
मेरा तो दम घुट रहा है इस संकीर्ण गृह में .
जीवन मनुष्य का जिया , आचरण जानवर का किया ,
दूसरों को दुख ही दुख दिया , छीन - छीनकर खा गया तू दूसरों की रोटियाँ .
वसुधैव कुटुंबकम का विचार आये कहाँ से .
मेरा तो दम घुट रहा है इस संकीर्ण गृह में .
---श्रीमती उषा