Sunday, May 25, 2014

दम घुट रहा है इस संकीर्ण गृह में .

खोल दो ये वातायन मेरा तो दम घुट रहा है,
इस संकीर्ण गृह में.
ऊंच नीच की खिड़कियाँ, अमीरी गरीबी के दरवाजे ,
जाति पाति के पर्दे , लगे हुए हैं बताओ ,
निर्मल और स्वच्छ हवा का झोंका आये तो कहाँ से .
क्यों न घुटे दम इस  संकीर्ण  गृह में.


बोलने को तो बहुत बोलते हैं ,
सोचने को तो बहुत सोचते हैं,
पर नहीं करते है कर्म ऐसे.
आदर्श महापुरुषों के , विचार ज्ञानियों के ,
परमार्थ साधुओ के लेकर चले थे ,
तो बताओ आचरण में ये नीचता छल प्रपंच  आया कहाँ से .


सब जन्म से एक है , सबका जन्मदाता एक है ,
सबका पालनहार एक है , फिर ये भेद किस लिये .
स्वयं जाल बुनकर तू स्वार्थ का , अब फस गया तू निकले कहाँ से -
मेरा तो दम घुट रहा है इस संकीर्ण गृह में .


समाज का क्या हो , परिवार का क्या हो ,
चिंता हो किसलिये ,
कामनाएं अनन्त है उन्हें तो पूरी कर लूँ ,
औरों के लिये भावनाएं आये तो कहाँ से .
मेरा तो दम घुट रहा है इस संकीर्ण गृह में .

जीवन मनुष्य का जिया , आचरण जानवर का किया ,
दूसरों को दुख ही दुख दिया , छीन - छीनकर खा गया तू दूसरों की रोटियाँ .
वसुधैव कुटुंबकम का विचार आये कहाँ से .
मेरा तो दम घुट रहा है इस संकीर्ण गृह में .
---श्रीमती उषा

Saturday, May 15, 2010

Learning . . .

All of us know as we grow, we learn. let me explain some side effects of learning.
When we sing a song
"Tum Pyaru ho, Tum Ladu ho, Tum guchi guchi ho, tum sonu sonu ho"
@ 1.5 Year kid, - there is a smile

@ 2 Years there is an argument( which is logically correct), "Mai Pyaru nahi hu, Mai Taavya(her name) hun.

I decided to talk to some more people, sing the same song and see how they react.

@ 23 - What? Whats That?

@ 25 - ?? What happened to you?

@ 35 - Kya bakvaas hai?

@ 35 - Hm...

@ 40 - Ha ha, kya hai ye ( Ah this one was better )
Given a thought, as people grow "Identity" growth starts..with name->social identification->educational->professional some more like name fame money. Having an identity is obvious but the side effect is a separation from smile(or basic nature of a person).

There are some more side effects, people want to add some more attribute to identity like..

Ma- Done engg, want to go for MBA and probably not sure whats the learning of an 'MBA', certainly it does add some value to Identity.

Mi- Wants to prove to world"I have Brain", need some more fame and fan following.

Na- Looks for appreciation whatever done, always in dissatisfaction i.e. identity crisis.

Va- Education is important, 4 Years Europe, some needed in US then may be in UK..hopefully identity 'll be done.

Ram- always in crises.

...
....
.....
Friends, what is the fun growing identity while loosing your real nature(smile). Anyway you are doing whatever you are doing, do it without crises, without disconnection to your real nature.

[If you like this post, sing for yourself "Main Pyaru hun, Main Ladu hun, Main guchi guchi hun, Main sonu sonu hun" ( I'm on composing music )]

शिक्षा

गुरु थोड़ी देर चुपचाप वत्सल दृष्टि से नवागन्तुक की ओर देखते रहे । फिर उन्होंने मृदु स्वर में कहा, "वत्स, तुम मेरे पास आये हो, इसे मैं तुम्हारी कृपा ही मानता हूं । जिनके द्वारा तुम भेजे गए हो उनका तो मुझ पर अनुग्रह है ही कि उन्होने मुझे इस योग्य समझा कि मैं तुम्हें कुछ सिखा सकूंगा । किन्तु मैं जानता हूं कि मैं इसका पात्र नहीं हूं । मेरे पास सिखाने को है ही क्या ? मैं तो किसी को भी कुछ नहीं सिखा सकता, क्योंकि स्वयं निरंतर सीखता ही रहता हूं । वास्तव में कोई भी किसी को कुछ सिखाता नहीं है; जो सीखता है, अपने ही भीतर के किसी उन्मेष से सीख जाता है । जिन्हें गुरुत्व का श्रेय मिलता है वे वास्तव में केवल इस उन्मेष के निमित्त होते हैं । और निमित्त होने के लिए गुरु की क्या आवश्यकता है ? सृष्टि में कोई भी वस्तु उन्मेष का निमित्त बन सकती है ?"

नवागन्तुक ने सिर झुका कर कहा, "मैंने तो यहां आने से पहले ही मन-ही-मन आपको अपना गुरु धार लिया है । आगे आपका जैसा आदेश हो ।"

गुरु फिर बोले, "जैसी तुम्हारी इच्छा, वत्स । यहीं रहो । स्थान की यहां कमी नहीं है । अध्ययन और चिन्तन के लिए जैसी भी सुविधा की तुम्हें आवश्यकता हो, यहां हो जायेगी । और तो..." गुरु ने एक बार आंख उठाकर चारों ओर देखा, और फिर हाथ से अनिश्चित सा संकेत करते हुए बोले, "यह सब ही है । देखो-सुनो, चाहो तो सोचो, जितना सको आनन्द प्राप्त करो ।"



"क्या देखा ?"

"गुरुदेव, मैंने एक पक्षी देखा । बहुत ही सुन्दर पक्षी !"

"और ?"

"इतना सुन्दर पक्षी ! मेरा मन हुआ कि अगर मैं भी ऐसा पक्षी होता, तो आकाश में उड़ जाता और दूर-दूर विचरण करता ।"

गुरु थोड़ी देर स्थिर दृष्टि से युवक की ओर जेखते रहे, फिर बिना उत्तेजना के बोले, "यह तो पाखण्ड है । जाओ, फिर देखो । सभी-कुछ सुन्दर है । जितना सको, आनन्द ग्रहण करो ।"



"क्या देखा ?"

"गुरुदेव, मैंने एक बड़ा सुन्दर पक्षी देखा । ऐसा अद्वितीय सुन्दर !"

"फिर ?"

"मेरा मन हुआ कि किसी प्रकार उसे पकड़कर पिंजड़े में बन्द कर लूं कि वह सर्वदा मेरे निकट रहे और मैं उसे देखा करूं ।"

"चलो, कुछ तो देखा ! पहले देखने से इस देखने में सत्य तो अधिक है ।" गुरु थोड़ी देर उसी खुली किन्तु रहस्यमय दृष्टि से शिष्य को देखते रहे । "अधिक सचाई है, किन्तु ज्ञान अभी नहीं है । जाओ, फिर देखो, सुनो । जितना सको, आनन्द ग्रहण करो ।"



"क्या देखा ?"

"मैंने एक पक्षी देखा । अत्यन्त सुन्दर पक्षी । वैसा मैंने दूसरा नहीं देखा और कल्पना नहीं कर सकता कि भविष्य में कभी देखूंगा - कि इतना सुन्दर पक्षी हो भी सकता है ।"

"फिर ?"

"फिर कुछ नहीं गुरुदेव । मैं उसे देखता रहा और देखता ही रहा । मैंने अपनेआप से कहा, यह पक्षी है, यह सुन्दर है, यह अप्रतिम है । फिर वह पक्षी उड़ गया । फिर मैंने अपनेआप से कहा, मैंने देखा था, वह पक्षी सुन्दर था, और अप्रतिम था, और वह उड़ गया, किन्तु मुझे उस पक्षी से क्या ? उसका जीवा उसका है । फिर मैं चला आया ।"

गुरु स्थिर दृष्टि से शिष्य को देखते रहे । न उस दृष्टि के खुलेपन में कोई कमी हुई, न उसकी रहस्यमयता में । फिर उनका चेहरा एकाएक एक वात्सल्यपूर्ण स्मिति से खिल आया और उन्होंने कहा, "तो तुमने देख लिया, इतना ही ज्ञान है । इससे अधिक मेरे पास सिखाने को कुछ नहीं है । यह भी मेरे पास नहीं है, सर्वत्र बिखरा हुआ है । मैंने कहा था कि कोई किसी को कुछ सिखाता नहीं है । उन्मेष भीतर से होता है । गुरु निमित्त हो सकता है । किन्तु निमित्त तो कुछ भी हो सकता है ।" एक बार फिर उनका हाथ उसी अस्पष्ट संकेत में उठा और घुटने पर टिक गया ।

"जाओ, वत्स ! देखो-सुनो ! जितना सको, आनन्द ग्रहण करो !"

- 'अज्ञेय'

Monday, March 8, 2010

मैंने आहुति बनकर देखा

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्दर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरु नंदन-कानन का फूल बने?
कांटा कठोर है, तीखा है, उसमें उस की मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घट कर प्रांतर का ओछा फूल बने?
मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करूं मेरा ऊँचा प्रासाद बने?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चक्र मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जाये क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी नेरा गतिरोधक शूल बने?
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ,
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ,
मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही अति-धार बने,
इस निर्मल रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने,
भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने।
- 'अज्ञेय

Friday, November 14, 2008

Sant Calvin Uvach

I'm not dumb. I just have a command of thoroughly useless information.
The sadistic pleasure a teacher gets in punishing students, more than compensates for their lousy pay!
Life is full of precluded possibilities!
If you can't win by reason, go for volume.
There's no problem so awful that you can't add some guilt to it and make it even worse.
Mother is the necessity of invention.
The secret to good self-esteem is to lower your expectations to the point where they're already met!
You know how people are. They only recognize greatness when some authority confirms it.
The State Sponsored Terrorism Also Called the Gym Class.
Trusting your parents can be injurious to health.
The world is much nicer if you can get away from it.
There’s an inverse relationship between how good something is for you and how much fun it is.
As far as I'm concerned, if something is so complicated that you can't explain it in 10 seconds, then it's probably not worth knowing anyway.

Thursday, November 13, 2008

ख्वाब

एक अजीब सा एहसास , कौन है वो!!
एक शान्ति , एक आनंद , हाँ मे जनता हूँ ,
कुछ लोग है , जिनकी दुआओ पर मैं जीता हूँ ,
लेकिन ये कोई और था शायद ,
कोई अनजाना , लेकिन अब उसको अनजाना कहना भी ग़लत होगा ,
फ़िर भी एक जिज्ञासा , कौन है वो अनजाना!!

कही ये मेरी खामख्याली तो नहीं ,
हाँ मैं जागते हुए ख्वाब देखता हूँ ,
कुछ ख्वाब यथार्थ मे बदल पाता हूँ ,
लेकिन आज एसा लग रहा है कि , मै ख्वाबों मे जाग रहा हूँ ,
किसी शायर ने कहा है कि , ख्वाबों मे जागते रहना बेख्वाब सोने से तो अच्छा है.

Wednesday, November 12, 2008

ऊहापोह

हर सुबह की एक शाम होती है ,
अगर धूप होती है तो छाँव भी होती है ,
हर रात के बाद एक सुबह होती है ,
लेकिन ये कैसी रात है , जिसकी सुबह आती ही नही ,
मैंने तो अपनी आखें बंद भी नहीं की , एक सुबह के आने के इंतजार मै ,
अब एसा लगाने लगा है कि, शायद मै पृथ्वी पर हूँ ही नहीं ,
किसी अनदेखे अनजाने ग्रह पर सूरज की रौशनी की तलाश मे भटक रहा हूँ, शायद जिसका कोई सूरज है ही नहीं,
या फ़िर परिवर्तन आ गया है, सूरज पीले रंग को छोड़कर काला हो गया है,
अगर ये सत्य है तो कैसा है ये परिवर्तन, मानव जीवन के विकास के लिए या विनाश के लिए?